दिन ढलते-ढलते ,ढलते-ढलते थोड़ा-थोड़ा बचा हुआ
रूई-रूई बीच बदरिया बिन्दी भर सूरज छुपा हुआ
पेड़ की कोपल से कोयल की जब-जब कोई कूक उठे
घोर घने मन-उपवन की हर टहनी में एक हूक उठे
छुए बैरन पुरवईया ले अंगड़ईयां तन खीझ उठे
खेतन में देख मोरन की अठखेलियाँ मन रीझ उठे
बेला ,चम्पा ,गेंदा पर तितली, भँवरे मंडराते हैं
देख अकेला मेरा जीवन मुझ पे वे मुसकाते हैं
दृश्य सुहावन ये सारे मनभावन तब ही लगते हैं
हिय में बसने वाले पिय पास मेरे जब होते हैं
दीप जलाकर जोहूँ दीपों संग खुद भी जलती हूँ
मन मंदिर में जो चित्र है अंकित उसकी छवि निरखती हूँ
मोती माला की बिखरे ज्यों त्यों मैं रोज बिखरती हूँ
एक आस है कि प्रिय आएंगे यही सोच के रोज सिमटती हूँ
नहि बोल किसी की भावे है नहि अच्छी किसी की चूप लगे
बिन साजन सावन क्या सावन बारिश भी एक धूप लगे
~ अतुल मौर्य
१२/०५/२०२१