Thursday, March 4, 2021

ग़ज़ल- हज़ारों जख्म खाकर भी यहां पर मुस्कुराना है

 बहरे हज़ज़ मुसम्मन सालिम


1222 - 1222 - 1222 - 1222

हज़ारों ज़ख्म खाकर भी यहां पर मुस्कुराना है
हमें काटों में रहकर भी सदा ख़ुशबू लुटाना है /1/
                 
अलग अंदाज होता है जवानी के दिनों का भी
हवा भी तेज़ है इसमें दिये को भी जलाना है  /2/

नज़र आए कहीं यारों तो मुझको इत्तला करना
हथेली खींच कर उसकी मुझे इक दिल बनाना है /3/
           
कभी बारिश कभी सावन कभी फ़ूलों के गुलशन सा
शुरू में प्यार का मौसम बहुत लगता सुहाना है /4/

नए दिल हैं नई धड़कन नई रुत है नया मंज़र
मुहब्बत भी नई बेशक मगर किस्सा पुराना है /5/
             
वो बुत जिसको तरासा हमने अपनी ज़िन्दगी देकर
उसे ही याद रखना है उसी को भूल जाना है  /6/

अमां सीखो रियाज़ी ज़िन्दगी का फ़लसफा हमसे
मुहब्बत जोड़ना इसमें  से नफ़रत को घटाना है  /7/
                
                                                  – अतुल मौर्य
                                           तारीख: 02/03/2021

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