Tuesday, May 5, 2020

यही कुछ रात के बारह बजे हैं

 यही कुछ रात के बारह बजे हैं
अकेला हूँ कमरे में
 और भीतर से  भी
दाएं की करवट लेटे
हाथ को तकिया बनाये
वर्तमान और भविष्य को
अतीत में तौल रहा हूँ कि
कोई आँसू सा पलकों पे ठहर जाता है
और बेकल है किनारों से बह जाने को
फिर एक आह लेते
करवट सीधी करते
निगाह छत से टंगे पंखे पे रुकती है
और मन किसी  याद पे
 इतने में बाएं हाथ की अनामिका
सूखे होठ पे रख कर
आँखों में हजारों चेहरा बना और मिटा रहा हूँ
इन्हीं उलझनों ,बेचैनियों की कश्मकश में
जाने कब
मन  और आँख थक गई , मैं सो गया
यही कुछ रात के बारह बजे थे ।
                 
                       ~ अतुल मौर्य
                       03/05/2020

https://youtu.be/mYn1i_qCZuA

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