Monday, May 25, 2020

जवाब दो मुझे

मैं
परेशां तो पहले भी था
हैरां तो पहले भी था
मजबूर तो पहले भी हुआ था
थक के चूर तो पहले भी हुआ था
पहले भी कई बार
मना किया है भूख को ,की आज मत आना
आमन्त्रित किया है नींद को ,की आज जल्दी आना
बनाये हैं कई बार बहाने
बोलें हैं सौ-सौ झूठ
मगर
इतना परेशां , इतना हैरां
इतना मजबूर , इतना थक के चूर
इतना भूखा, कई रातों का जगा
पहले कभी न था
नहीं आते अब मुझे बनाने बहाने
और न आते हैं वो झूठ भी
आज विवश हूँ सोचने के लिए
आखिर कौन हूँ मैं , क्यों हूँ इतना तंग
मैं वही कि
जिसके दम से सड़कें ,सड़क बनीं हैं
जिसके दम से शहर , शहर बनें हैं
जिसके दम से चलते हैं कल - कारखानें
जिसके दम से  सांस लेती हैं मशीनें
जिसके दम से इठलाती हैं ऊँची इमारतें
जिसके दम से मुस्कुराती हैं सारी दुकानें
क्या सच में यही हूँ मैं
यही हूँ तो क्यों
ये दुकानों , इमारतों , कारखानों और शहरों के मालिक
न पाल सके मेरा पेट
न दे सके सर पे मेरे छत
न दे सके चंद सिक्के
न दे सके उम्मीद
क्या इसीलिए
की प्यासी थीं मेरे खूं की रेल की पटरियां
की भूखी थीं सड़कें मेरे पावों के छालों के लिए
या करनी थी सियासत आकाओं , हुक्मरानों को
या रचनी थी कुछ कविताएं ,
बनाने थे संगीत ,
खिंचवानी थी फ़ोटो मेरी
मुफलिसी के साथ
मेरी बेबसी के साथ
बताओ क्यों , क्यों , क्यों
जवाब दो मुझे , भारत !
जवाब दो मुझे ।
मैं
परेशां तो पहले भी था
हैरां तो पहले भी था ..।।
                                    ~ अतुल मौर्य

Thursday, May 7, 2020

सन्नाटा और मैं

एक सन्नाटा रहता मेरे अंदर है
चीखता चिल्लाता जो निरन्तर है
दिन - दुपहर को रहे ये मौन साधे
बेचैनियां बाँटता फिर रात भर है

ये सन्नाटा कभी खुशहाल कर देता मुझे
और कभी जीवन पथ पे असहाय कर देता मुझे
इस सन्नाटे ने बेशक  बर्बादियाँ दी हैं मुझे
पर मुवावजे में गीतों की पंक्तियाँ दी हैं मुझे
इस सन्नाटे से है गहरा कोई नाता मेरा
इस सन्नाटे में है विष भरा, अमृत भरा
होता इसके साथ ही सोना मेरा, जगना मेरा
उठना मेरा , बैठना मेरा, ओढ़ना - बिछाना मेरा
कभी खामोशी के सागर में मुझे बहाकर ले जाता
कभी उदासी के पर्वत पर मुझे उड़ाकर ले जाता
बरखा बन के कभी ये बौछार मेरी ओर करता
बदरा बन के कभी ये गर्जना घनघोर करता
इस सन्नाटे में ही मैं गीत बुनता हूँ
इस सन्नाटे में ही मैं प्रीत चुनता हूँ
इस सन्नाटे से घंटो संवाद करता हूँ
जाने कितना वक्त मैं बर्बाद करता हूँ
 संवाद बीच अँखिया जब बह जाने को कहती हैं
दो नयननीरों को मिला इलाहाबाद करता हूँ
कुछ आसुंओं को आंखों से जब रिहाई मिल जाती है
दर्द के मारे बुनियाद हमारे दिल की जब हिल जाती है
तब जा करके सन्नाटा आकार लेता है
तब जा करके  हृदय उद्गार करता है
विसंगतियों से तब आँखे चार करता है
मन ही मन में कितना हाहाकार करता है
हाय ! सन्नाटा ये कितना भयंकर है
मुस्कान पार्वती का है तो
कभी क्रोधित शिव - शंकर है
हाँ ! यही सन्नाटा रहता मेरे अंदर है
चीखता - चिल्लाता जो निरन्तर है
  दिन - दुपहर को रहे ये मौन साधे
बेचैनियां बाँटता फिर रात भर है
                                 
                                   ~ अतुल मौर्य
                                    08/05/2020


Tuesday, May 5, 2020

यही वही , वही यही

वही जो कल किया था हमने
वही तो मिल रहा है आज
मगर, मुकाबले नेकियों के
मिल रहा जो बदी का
वो कुछ ज्यादा है
शायद सूद पे सूद समेत
यही वसूल-ए-जिंदगी
जो हम समझ पाते तभी
तो  आज  न होते ये , रतजगे
जो कर रहे हैं हम
और शायद न होती ये
कविता भी
वही बातें है पुरानी कुछ
यही कुछ साल पुरानी
मालूम होता अंजाम-ए-वफ़ा
तो पत्थर न बनते उसके रस्ते का
और शायद जो कह रहा है हमें वो बेवफ़ा
वो भी
हमारे पास अब कुछ नहीं
कुछ भी नहीं सिवा आपबीती के
और कभी खत्म न होने वाला
वो किस्सा भी
इस किस्से को कहते हुए
दबा के गम सीने में
 समेट देता हूं वो किस्सा
कितनी आसानी , कितनी चालाकी से
की मुस्कुरा के कहता हूँ
यही सब है बस..
यही वही , वही यही ...।

                                       ~ अतुल मौर्य
                                       06/05/2020

यही कुछ रात के बारह बजे हैं

 यही कुछ रात के बारह बजे हैं
अकेला हूँ कमरे में
 और भीतर से  भी
दाएं की करवट लेटे
हाथ को तकिया बनाये
वर्तमान और भविष्य को
अतीत में तौल रहा हूँ कि
कोई आँसू सा पलकों पे ठहर जाता है
और बेकल है किनारों से बह जाने को
फिर एक आह लेते
करवट सीधी करते
निगाह छत से टंगे पंखे पे रुकती है
और मन किसी  याद पे
 इतने में बाएं हाथ की अनामिका
सूखे होठ पे रख कर
आँखों में हजारों चेहरा बना और मिटा रहा हूँ
इन्हीं उलझनों ,बेचैनियों की कश्मकश में
जाने कब
मन  और आँख थक गई , मैं सो गया
यही कुछ रात के बारह बजे थे ।
                 
                       ~ अतुल मौर्य
                       03/05/2020

https://youtu.be/mYn1i_qCZuA