Wednesday, November 18, 2020

लघुकविता- स्त्री

 

सहनशीलता , मर्यादा,
लोकलाज ,भावुकता,
स्नेह, करुणा
और न जाने क्या- क्या
सदियों से ढूँढा गया क्यों उनमें ही
इनका होना ही परिभाषा बना स्त्री का
सच है गर ये परिभाषा
तो हर पुरूष को चाहिए
बन जाए वो भी स्त्री
  
~ अतुल मौर्य
रविवार, 8 नवम्बर ,2020

Thursday, October 8, 2020

ग़ज़ल-7 जलें सब वो जब मुस्कुरा कर चले

 


जलें सब, वो जब मुस्कुरा कर चले

कहें, क्यूँ वो नज़रें उठा कर चले  /१/


जो कहते थे बेटी रहे घर में ही

उन्हें बेटी ठेंगा दिखा कर चले /२/


झुका सर तो सर फिर कहाँ सर रहा

चले हम  जहाँ सर उठा कर  चले /३/


सफर में रहे उम्र भर इस कदर

की हम रहगुज़र को चला कर चले/४/


गज़ब थे वे भी सरफिरे लोग जो

वतन के लिए जां फिदा कर चले /५/


ज़माना हमें बस  दग़ा ही दिया

'अतुल' तो है नादाँ वफ़ा कर चले /६/


                         © अतुल मौर्य

              तारीख : 27/09/2020


                          




Monday, September 28, 2020

ग़ज़ल-6 भरो हुंकार ऐसी

 1222-1222-1222-1222


भरो हुंकार ऐसी, दिल्ली का दरबार हिल जाए

युवाओं कर दो कुछ ऐसा  कि ये सरकार हिल जाए /१/


यहाँ जो बाँटते हैं मजहबों के नाम पे हमको

करो इक वार उनकी नफरती दीवार हिल जाए /२/


हुकूमत चीज क्या मिल कर दहाड़ो साथ में तुम तो

बुलंदी से खड़ी वो चीन की दीवार हिल जाए /३/


जवाने हिन्द गर जय हिन्द का जयघोष जो कर दें

तो डर के फौज जो सरहद के है उस पार हिल जाए /४/


                                     ~अतुल मौर्य

                              तारीख- 29/09/2020


                                    

                       




Friday, September 11, 2020

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

 

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

मेरी आँखों में कोई रहता है

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

मेरे अश्कों संग कोई बहता है

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

मेरे दिन में, मेरी रात में

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

मेरी चुप्पी में, मेरी बात में

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

अभी लिखकर जिसे मिटाया है

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

याद कर के जिसे भुलाया है

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

दूर हो के जो पास है

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

वो बहुत बदमाश है

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

वो शायर का दिवान है

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

वो गज़लों का उन्वान है

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

वो कविताओं की भाषा है

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

वो छंदों की परिभाषा है

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

मेरी हर लिखावट में

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

शब्दों की सजावट में

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

काग़ज़ के कोरेपन में उसे

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

अंतस के सूनेपन में उसे

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

वो चाँद तारों में है

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

वो सारे के सारों में है

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

वो पत्तों में है, डाली में है

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

वो खेतों की हरियाली में है

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

चुम्बन करती हवाओं में

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

काली घिरती घटाओं में

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

वो किताबों में है

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

वो शराबों में है

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

कोयल की आवाज़ में

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

परिंदों की परवाज़ में

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

सागर में, दरियाओं में

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

जलते-तपते सहराओं में

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

मोरों के नृत्य प्रदर्शन में

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

ग्रंथो में वर्णित दर्शन में

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

वीणा की हर इक तान में

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

संगीत की मधुमय गान में

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

बच्चों की मुस्कान में

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

मंदिर के कीर्तन गान में

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

मस्जिद से होती अजान में

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

सुबह में, शाम में

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

अपने-अपने काम में

इन सब जगहों पर मैंने

मैंने उसको ढूँढ़ा है

इन सब जगहों पर मैंने

मैंने उसको पाया है

प्रिय पाठक , प्रिय स्रोता तुम भी

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो।।

                                         ~अतुल मौर्य


तारीख- 11/09/2020





Tuesday, September 8, 2020

डायरी

 

खोई हुई डायरी का मिलना
यानी एक जीवन का मिलना
पन्ने को पलटना यानी
जिन्दगी को सफर पर ले जाना
उस वक्त रुक सा गया
कोई पन्ना, मेरी नज़रों में
कोई आवाज़, मेरे ज़हन में
कोई आँसू, मेरे अन्तस में
आखिर क्यों लिखा था उसने
"I always with you"
जबकि जाना ही था  उसे
छोड़कर मुझे ..।
पन्ने तो उम्र जैसे ही सीमित होते हैं
जीवन एक डायरी है
काश की उस डायरी के पन्ने खत्म ही न होते
तो मैं उम्र भर पलटता रहता उसके पन्ने
और जी लेता एक जीवन डायरी के संग
पर ऐसा कहाँ होता है
उम्र सीमित है
और पन्ने भी ।
  
                             ~अतुल  
                          तारीख : 30/08/2020

Sunday, September 6, 2020

ग़ज़ल–5 न जिसके सर पे साया हो वो जाए तो कहाँ जाए

 

1222 - 1222 - 1222 - 1222

न जिसके सर पे साया हो वो जाए तो कहाँ जाए
जो अपने घर का मारा हो वो जाए तो कहाँ जाए/१/

सहारा हो ज़मी का तो कदम चलने को हों राज़ी
नहीं जिसका सहारा हो वो जाए तो कहाँ जाए/२/

दुकानें बंद हो तो भी सभी का काम चलता है
कि जो  मय का दिवाना हो वो जाए तो कहाँ जाए/३/

चले गोली तो मुमकिन है की कोई बच भी जाए पर
जो नज़रों का निशाना हो वो जाए तो कहाँ जाए/४/

लहर चलती है तो आ करके टकराती हैं साहिल से
जो पहले ही किनारा हो वो जाए तो कहाँ जाए/५/

मेरी दीवानगी को देख हैरत में ख़ुदा बोला
'अतुल' सा जो दिवाना हो वो जाए तो कहाँ जाए/६/
 
                                           ~ अतुल मौर्य

Monday, May 25, 2020

जवाब दो मुझे

मैं
परेशां तो पहले भी था
हैरां तो पहले भी था
मजबूर तो पहले भी हुआ था
थक के चूर तो पहले भी हुआ था
पहले भी कई बार
मना किया है भूख को ,की आज मत आना
आमन्त्रित किया है नींद को ,की आज जल्दी आना
बनाये हैं कई बार बहाने
बोलें हैं सौ-सौ झूठ
मगर
इतना परेशां , इतना हैरां
इतना मजबूर , इतना थक के चूर
इतना भूखा, कई रातों का जगा
पहले कभी न था
नहीं आते अब मुझे बनाने बहाने
और न आते हैं वो झूठ भी
आज विवश हूँ सोचने के लिए
आखिर कौन हूँ मैं , क्यों हूँ इतना तंग
मैं वही कि
जिसके दम से सड़कें ,सड़क बनीं हैं
जिसके दम से शहर , शहर बनें हैं
जिसके दम से चलते हैं कल - कारखानें
जिसके दम से  सांस लेती हैं मशीनें
जिसके दम से इठलाती हैं ऊँची इमारतें
जिसके दम से मुस्कुराती हैं सारी दुकानें
क्या सच में यही हूँ मैं
यही हूँ तो क्यों
ये दुकानों , इमारतों , कारखानों और शहरों के मालिक
न पाल सके मेरा पेट
न दे सके सर पे मेरे छत
न दे सके चंद सिक्के
न दे सके उम्मीद
क्या इसीलिए
की प्यासी थीं मेरे खूं की रेल की पटरियां
की भूखी थीं सड़कें मेरे पावों के छालों के लिए
या करनी थी सियासत आकाओं , हुक्मरानों को
या रचनी थी कुछ कविताएं ,
बनाने थे संगीत ,
खिंचवानी थी फ़ोटो मेरी
मुफलिसी के साथ
मेरी बेबसी के साथ
बताओ क्यों , क्यों , क्यों
जवाब दो मुझे , भारत !
जवाब दो मुझे ।
मैं
परेशां तो पहले भी था
हैरां तो पहले भी था ..।।
                                    ~ अतुल मौर्य

Thursday, May 7, 2020

सन्नाटा और मैं

एक सन्नाटा रहता मेरे अंदर है
चीखता चिल्लाता जो निरन्तर है
दिन - दुपहर को रहे ये मौन साधे
बेचैनियां बाँटता फिर रात भर है

ये सन्नाटा कभी खुशहाल कर देता मुझे
और कभी जीवन पथ पे असहाय कर देता मुझे
इस सन्नाटे ने बेशक  बर्बादियाँ दी हैं मुझे
पर मुवावजे में गीतों की पंक्तियाँ दी हैं मुझे
इस सन्नाटे से है गहरा कोई नाता मेरा
इस सन्नाटे में है विष भरा, अमृत भरा
होता इसके साथ ही सोना मेरा, जगना मेरा
उठना मेरा , बैठना मेरा, ओढ़ना - बिछाना मेरा
कभी खामोशी के सागर में मुझे बहाकर ले जाता
कभी उदासी के पर्वत पर मुझे उड़ाकर ले जाता
बरखा बन के कभी ये बौछार मेरी ओर करता
बदरा बन के कभी ये गर्जना घनघोर करता
इस सन्नाटे में ही मैं गीत बुनता हूँ
इस सन्नाटे में ही मैं प्रीत चुनता हूँ
इस सन्नाटे से घंटो संवाद करता हूँ
जाने कितना वक्त मैं बर्बाद करता हूँ
 संवाद बीच अँखिया जब बह जाने को कहती हैं
दो नयननीरों को मिला इलाहाबाद करता हूँ
कुछ आसुंओं को आंखों से जब रिहाई मिल जाती है
दर्द के मारे बुनियाद हमारे दिल की जब हिल जाती है
तब जा करके सन्नाटा आकार लेता है
तब जा करके  हृदय उद्गार करता है
विसंगतियों से तब आँखे चार करता है
मन ही मन में कितना हाहाकार करता है
हाय ! सन्नाटा ये कितना भयंकर है
मुस्कान पार्वती का है तो
कभी क्रोधित शिव - शंकर है
हाँ ! यही सन्नाटा रहता मेरे अंदर है
चीखता - चिल्लाता जो निरन्तर है
  दिन - दुपहर को रहे ये मौन साधे
बेचैनियां बाँटता फिर रात भर है
                                 
                                   ~ अतुल मौर्य
                                    08/05/2020


Tuesday, May 5, 2020

यही वही , वही यही

वही जो कल किया था हमने
वही तो मिल रहा है आज
मगर, मुकाबले नेकियों के
मिल रहा जो बदी का
वो कुछ ज्यादा है
शायद सूद पे सूद समेत
यही वसूल-ए-जिंदगी
जो हम समझ पाते तभी
तो  आज  न होते ये , रतजगे
जो कर रहे हैं हम
और शायद न होती ये
कविता भी
वही बातें है पुरानी कुछ
यही कुछ साल पुरानी
मालूम होता अंजाम-ए-वफ़ा
तो पत्थर न बनते उसके रस्ते का
और शायद जो कह रहा है हमें वो बेवफ़ा
वो भी
हमारे पास अब कुछ नहीं
कुछ भी नहीं सिवा आपबीती के
और कभी खत्म न होने वाला
वो किस्सा भी
इस किस्से को कहते हुए
दबा के गम सीने में
 समेट देता हूं वो किस्सा
कितनी आसानी , कितनी चालाकी से
की मुस्कुरा के कहता हूँ
यही सब है बस..
यही वही , वही यही ...।

                                       ~ अतुल मौर्य
                                       06/05/2020

यही कुछ रात के बारह बजे हैं

 यही कुछ रात के बारह बजे हैं
अकेला हूँ कमरे में
 और भीतर से  भी
दाएं की करवट लेटे
हाथ को तकिया बनाये
वर्तमान और भविष्य को
अतीत में तौल रहा हूँ कि
कोई आँसू सा पलकों पे ठहर जाता है
और बेकल है किनारों से बह जाने को
फिर एक आह लेते
करवट सीधी करते
निगाह छत से टंगे पंखे पे रुकती है
और मन किसी  याद पे
 इतने में बाएं हाथ की अनामिका
सूखे होठ पे रख कर
आँखों में हजारों चेहरा बना और मिटा रहा हूँ
इन्हीं उलझनों ,बेचैनियों की कश्मकश में
जाने कब
मन  और आँख थक गई , मैं सो गया
यही कुछ रात के बारह बजे थे ।
                 
                       ~ अतुल मौर्य
                       03/05/2020

https://youtu.be/mYn1i_qCZuA

Tuesday, April 28, 2020

ग़ज़ल - 3 गुजारी ज़िंदगी हमने तो पीने में पिलाने में

ग़ज़ल- 3
वज़्न-
1222 - 1222 - 1222 - 1222

गुजारी ज़िंदगी हमने तो पीने में पिलाने में
मजा पीने  में जो आये कहाँ वो है जमाने में //१

पिये बिन कोई क्या जाने वो पैरों का लिपट जाना
हमारा चल के रुक जाना वो पैरों को  चलाने में//२

मेरी पीने की ये आदत तेरी यादों से वाबस्ता
ये सारे जाम हैं खाली  सनम तुझको भुलाने में//३

की जैसे टूट के बिखरा है पैमाना ये शीशे का
हमारा दिल भी यूँ टूटा था दिल से दिल लगाने में//४

चलो यारों जहाँ भी साथ मयखाना चलो ले कर
की कब होने लगे हलचल हमारे दिल दिवाने में//५

उड़ा दी नींद भी मेरी भुला दी हर  खुशी गम को
 बड़ी कुर्बानियां ली है ग़ज़ल खुद को सजाने में //६

सभी थे सच्चे किरदारों के पढ़ने लिखने वाले सब
मुकम्मल ऐब वाले थे  हमीं अपने घराने में //७

मोहब्बत का फ़साना छेड़ दे महफ़िल में गर कोई
हमारा नाम आएगा फसाने को  सुनाने में//८

नए गीतों में अब वो बात ही मिलती नहीं अक्सर
जो होती थी  लता दीदी के उन नग्मे पुराने में//९


अतुल'  तुमको भला कैसे भुला सकता है अब कोई                       
जो रहते हो लबों पे और हर दिल के ठिकाने में //१०                                 
                                     ~अतुल मौर्य
                                    27/04/2020

Tuesday, April 14, 2020

ग़ज़ल -2 देखते ही हम नशे में खो गए


ग़ज़ल -2
बह्र - 
  2122    2122     212
देखते ही हम नशे में खो गए
हम हवाले आप के अब हो गए //१

बादलों में चाँद जैसे मिलता है
आप में हम इस तरह से खो गए//२

देख कर जादू अदा का आप के
चाँद तारे आसमाँ में खो गए //३

आ के आखिर तंग यादों से तेरे
पोंछ कर आंसू सिसक के सो गए //४

हैं अतुल वो आज भी जो इश्क में
लैला- मजनू , हीर - रांझे हो गए //५
               

                                        ~ अतुल मौर्य
                                    14 / 04 / 2020

Tuesday, April 7, 2020

कविता लिखूँ कोई तुम पे

कविता लिखूं कोई तुम पे या फिर कोई गीत लिखूँ
लिखूँ अगर कुछ भी तो बस इतनी सी चीज लिखूँ
प्रीत भरी स्याही में डुबो कर अपनी लेखनी
अंतर्मन के पन्नों पर तुमको अपना मीत लिखूँ

खोए - खोए मन को तुम ऐसे बहला देती हो
मस्तानी पवन जैसे उपवन में फूलों को सहला देती हो
हे मेरे सच्चे साथी सुनो मैं जीत चुका हूँ सबकुछ
और हार के तुम पे नाम तुम्हारे अपनी सारी जीत लिखूँ
अंतर्मन के पन्नों पर ....


जीवन पथ पर मिले हो तो जीवन पथ तक संग रहना
घोर तिमिर छाए जब - जब तारों से चमकते रहना
आनंद- व्यथा कुछ और नहीं ये वाद्ययंत्र हैं जीवन के
इन यंत्रो के लिए मैं तुम सा कोई मधुमय गीत लिखूँ
अंतर्मन के पन्नों पर.....

लिखूँ तो बस लिखता ही रहूँ न थकूं कभी लिखते- लिखते
हे प्यारे बंधु , शखा मेरे तुम्हें मीत, मीत, और मीत लिखूँ

                         
                                                     ~ अतुल मौर्य 

ग़ज़ल -1 जी भर के तुम्हें देखना चाहता हूं

ग़ज़ल -1
बह्र-

122 - 122 - 122 - 122

जी भर के तुझे देखना चाहता हूँ
तेरी आँख में डूबना चाहता हूँ /1/

ग़ज़ल बन के आओ वरक पे ज़रा तुम
नज़र से तुम्हे चूमना चाहता हूँ /2/

न हो गमजदा हमनशीं मेरे हमदम
तुम्हे खुशनुमा देखना चाहता हूं /3/

न मतलब मुझे काम से है तुम्हारे
है क्या नाम ये जानना चाहता हूँ /4/

तुम्हें जिंदगानी में कर के मैं शामिल
तुम्हें जिंदगी सौंपना चाहता हूं /5/

                         ~  अतुल मौर्य

Wednesday, January 29, 2020

मैं कल रात बहुत अकेला था

धुंधलाई आंखों से पंखे की पत्तीयाँ गिन रहा था
अचानक घर की याद आयी थी मुझे
अपने को , अपनों से दूर पा रहा था
घड़ी की टिक-टिक कानों पर भारी पड़ रही थी
सिसक और बेचैनी एक साथ बढ़ रही थी
मन के भीतर एक हिस्से में सन्नाटा तो एक हिस्से में शोर था
मैं बहुत भाव विभोर था
कम्बल फेंक कर बिस्तर पे बैठ जाता
तो कभी ओढ़ कर लेट जाता
मेरे साथ अतीत की यादों का मेला था
मैं कल रात बहुत अकेला था
मैं कल रात बहुत अकेला था ।


- अतुल मौर्य

Friday, January 24, 2020

हर रोज सुबह होती है


हर रोज सुबह होती है
हर रोज सूरज चमकता है
किरणें बिखेरता, इठलाता हुआ
हर रोज सूरज निकलता है

मेरी छत से
एक मीठी सी धुन गुनगुनाते हुए
पंक्षियों का गुजरना होता है
नर्माहट और ठंडापन लिए
हवा का बहना होता है

हर रोज इन्हीं के जैसे
मेरा भी निकलना होता है
हर रोज वही अपना काम
रस्ते नापना और बस नापते जाना
तब तक नापना की जब तक–
चमक सूरज की धीरे से सिमटने लगे
किरणों को अपनी बटोरने लगे
गुनगुन पंक्षियों की बंद होने लगे
हवा चुप्पी लिए मंद होने लगे,

हासिल होती है एक थकान मेरे हिस्से में 
सूरज,किरण,पंक्षी,हवा सबके हिस्से में

इस थकान को लेकर
घर लौट आता हूँ
इन्तिज़ार के बिस्तर पर
सो जाता हूँ, खो जाता हूँ

फिर सुबह लिए सूरज को आते हुए
बिस्तर में जागे हुए मगर सोए हुए
उसे देखता हूँ , सोचता हूँ
आखिर क्यों ये सुबह होती है
जो हर रोज ये सुबह होती है

– अतुल मौर्य
    

Vedio देखें👉https://youtu.be/FOXo7e2kpA4



Thursday, January 23, 2020

मुझ जैसा ही रहने दो मुझे


मुझ जैसा ही रहने दो मुझे
मुझ जैसा ही रहने दो मुझे।।

निर्मल, अविरल धाराओं में
शीतल ,सुमधुर हवाओं में
बहने दो मुझे
मुझ जैसा ही रहने दो मुझे।

काट कर दरख्तों को तूने अपराध किया है
नन्हें परिंदे , थे जिनके घोंसले उन पर
उन सब का घर तूने बर्बाद किया है
इन्हीं दरख्तों से बनती हैं फ़िज़ाएँ जो
इन्हीं दरियाओं से बनती हैं घटायें जो
इन्हीं फ़िज़ाओं, घटाओं में तो रहता हूँ मैं
इन्हीं में रहने दो मुझे
मुझ जैसा ही रहने दो मुझे।।

ख़ुशी के बदले ग़म देने वाले
बार-बार मुझे छेड़ने वाले
मैं रूठ गया जो तुझसे ,तो तू
शेषनाग की फुफकार देखेगा
फ़िज़ाओं में हाहाकर देखेगा
चारों ओर बस चित्कार देखेगा
समन्दरों में भी अंगार देखेगा
इतनी मुश्किल न बनाओ 
आसान रहने दो मुझे
मुझ जैसा ही रहने दो मुझे।।

मैं हूँ तो तुम हो ; जानते हो ना ?
तुम ठीक से मुझे पहचानते हो ना ?
प्यास हूँ , साँस हूँ
तुम्हारी जिस्म में आती जाती हवा हूँ मैं
हाँ ! आबोहवा हूँ मैं
आबोहवा सा रहने दो मुझे
मुझ जैसा ही रहने दो मुझे
मुझ जैसा ही रहने दो मुझे ।।

- अतुल मौर्य